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कविता

अपने समय की अभिधा में

अमरेन्द्र कुमार शर्मा


1

मेरे होने को
तमाम समुद्री नमक और उसके खारेपन ने
अपने आगोश में ले लिया
मैं दुनिया का सबसे नमकीन और खारा व्यक्ति
तुम मुझे स्वीकार करो
अपने प्रेम की सबसे मीठी झील में

 

2

नकार और निषेध के ठीक बीचोबीच
अपनी ऊब को चेहरे से पोंछती उँगलियाँ
जब कभी तुम्हारे गेसुओं से उलझती
उलझते-उलझते
मैं ग्रीक योद्धाओं के अनुभवों में समा जाता
जहाँ कोई पौराणिक प्रेम गीत मधम -मधम
मेरे सिरहाने तक गूँजता है
प्रतीक्षा-रत हूँ
अपने समय की अभिधा में
किसी गेरुए प्यार की नदी के लिए
जिसमें नकार, निषेध और ऊब
संगीत के ताने-बाने बनते हों

 

3

अपने समय की राजनीति में
जबकि प्रेम एक मुश्किल काम होता जा रहा है
और मेरे प्रेम में नहीं है कोई इतिहास
कोई मिथक भी नहीं
न कोई बाजार
मैं तुम्हारे प्रेम में जलाता हूँ
महज एक अलाव
स्पर्श करता हूँ आग
महसूस करता हूँ तुम्हारी मौजूदगी
करता हूँ प्रेम - केवल समय की अभिधा में

 


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